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प्रबंधन का अर्थ,परिभाषा, व्यवस्था के सोपान एवं विशेषताएं Prabandhan ka Arth evam Paribhasha

 प्रबंधन का अर्थ एवं परिभाषा

'प्रबंधन' का अर्थ 

  • "साधनों एवं स्रोतों को निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग करने के स्वरूप को व्यवस्था कहते हैं।"

आई. के. डेविस के अनुसार,

"शिक्षण एक उच्चतम व्यावसायिक प्रक्रिया है। आई. के. डेविस ने ही शिक्षा के क्षेत्र में इस नए प्रत्यय शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को जन्म दिया।"

स्कॉट के अनुसार

व्यवस्था का अंतिम उद्देश्य विवाद को कम करना है। व्यवस्था के द्वारा व्यक्ति के महत्व को काम करने का प्रयास किया जाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यवस्था के द्वारा अनिश्चितता को काम किया जा सकता है और निश्चितता एवं स्थायित्व में वृद्धि की जाती है।

व्यवस्था के अंतर्गत निम्नलिखित युक्तियों को प्रयोग में लाया जाता है-

  • (a) कार्य विश्लेषण 
  • (b) अधिकारों और उत्तरदायित्वों को उत्तम क्रम में तय किया जाता है। 
  • (c) प्रयासों और स्रोतों तथा साधनों में समन्वय में स्थापित किया जाता है।

'प्रबंधन' निम्नलिखित मानव- व्यवस्था की धारणाओं पर आधारित है-

(१) व्यवस्था का परंपरागत सिद्धांत: कार्य केंद्रित

  • व्यवस्था के सदस्यों में कार्य करने की क्षमता होती है और निर्देशों को स्वीकार करके उनका अनुसरण कर सकते हैं, परंतु उनमें कार्य करने के लिए पहल करने की क्षमता नहीं होती ।न ही उनमें संपूर्ण कार्यप्रणाली को प्रभावित करने की क्षमता होती है। व्यवस्था के सदस्य मात्र मशीन की तरह कार्य करते हैं।

  • शिक्षा के क्षेत्र में भी विद्यार्थी मशीन की तरह कार्य करता है। उसकी रुचियां, रुझानों, क्षमताओं तथा अभिवृत्तियों को शिक्षा व्यवस्था में कोई स्थान नहीं दिया जाता। अतः शिक्षण - व्यवस्था कार्य - केंद्र तथा शिक्षक नियंत्रित होती है। अतःऐसी व्यवस्था में स्मृति स्तर का शिक्षण ही होता है तथा उसे रटने पर बल दिया जाता है।

(२) संगठन का मानवीय संबंध सिद्धांत: संबंध केंद्रित 

  • व्यवस्था के सदस्य अपनी अभिवृत्तियों, अभिरुचियों, मूल्यों तथा लक्ष्यों को साथ लाते हैं। यह सिद्धांत पारस्परिक कार्य केंद्रित सिद्धांत के विपरीत है। इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षण व्यवस्था इस ढंग से की जाती है कि विद्यार्थियों का प्रमुख विकास संभव हो। 
  • ऐसी व्यवस्था विद्यार्थियों की रुचियों, अभिरुचियों तथा योग्यता के अनुसार ही की जाती है। इस प्रकार की व्यवस्था में अध्यापक केवल परामर्शदाता की भूमिका ही निभाते हैं। वह विद्यार्थियों को क्रियाशील करने के लिए प्रोत्साहित करता है। विद्यार्थी को कार्य अधिक करना पड़ता है। शिक्षण की सहायक सामग्री पर बल दिया जाता है।

(३) आधुनिक व्यवस्था का सिद्धांत: कार्य तथा संबंध केंद्रित

  • इस व्यवस्था के सभी सदस्य किसी भी समस्या का समाधान करने में सक्षम होते हैं तथा कोई भी निर्णय लेने के योग्य हैं। इसमें प्रत्यक्षीकरण तथा चिंतन पर बल दिया जाता है ।


उपरोक्त तीनों सिद्धांतों के लक्ष्यों में अंतर होता है। वास्तव में, इन सिद्धांतों का विकास औद्योगिक प्रबंध की दृष्टि से किया गया है। इस सिद्धांत में कार्य तथा मानव संबंधों को भी शामिल किया जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षक, विद्यार्थी, कार्य तथा व्यवस्था सभी में समन्वय स्थापित किया जाता है।

शिक्षण अधिगम व्यवस्था के सोपान

शिक्षक को प्रबंधक भी कहा जाता है। सर्वप्रथम आई. के. डेविस ने ही शिक्षक को प्रबंधन के रूप में प्रस्तुत किया। डेविस ने शिक्षण-अधिगम व्यवस्था में निम्नलिखित चार सोपनो का वर्णन किया है - 

(१) नियोजन 

  • इस सोपान के अंतर्गत शिक्षक को उद्देश्यों का निर्धारण और उन्हें परिभाषित करना होता है। शिक्षण पाठ्यक्रम का विश्लेषण करके इसे क्रमबद्ध तरीके से नियोजित भी करता है। इसके अतिरिक्त शिक्षक के लिए अनुदेशन का विकास करना तथा सहायक सामग्री का चयन करना भी शिक्षक के उत्तरदायित्व में सम्मिलित हैं। इस सोपान के दौरान शिक्षक को अपनी सृजनात्मक और कल्पना की शक्तियों को विकसित करने का अवसर मिलता है।

(२) व्यवस्था 

 शिक्षण - अधिगम व्यवस्था में उद्देश्यों को प्राप्त करना ही मुख्य लक्ष्य होता है। इस सोपान में उद्देश्यों को हासिल करने के लिए शिक्षण- अधिगम परिस्थितियों को विकसित किया जाता है। इन परिस्थितियों का विकास व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(३) शिक्षण का मार्गदर्शन-

एक शिक्षक का मुख्य कर्तव्य होता है- विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करना ।उनके कार्यों का निरीक्षण करना तथा उन्हें आवश्यक निर्देशन देना। शिक्षक के ये सभी कर्तव्य विद्यार्थियों को उनके उद्देश्यों को सम्मिलित करने में सहायक होते हैं।

(४) शिक्षण का नियंत्रण -

  • शिक्षक का अंतिम कर्तव्य है शिक्षक का नियंत्रण। यह कार्य शिक्षक के लिए सबसे कठिन कार्य है। इसमें शिक्षक सभी विद्यार्थियों का उद्देश्यों के संदर्भ में मूल्यांकन करता है। यह मूल्यांकन शिक्षक परीक्षाओं द्वारा करता है।

उपरोक्त चारों सोपान अलग-अलग दिखाई देते हैं। इन चारों सोपानों की क्रियाएं भी भिन्न होती है, लेकिन ये चारों सोपान आपस में संबंधित हैं। जैसे नियंत्रण सोपान के अंतर्गत मार्गदर्शन और व्यवस्था सोपनो का मूल्यांकन किया जाता है। इससे हमें यह भी पता चलता है कि नियोजन सोपान के अंतर्गत तय किए गए उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है या नहीं।

शिक्षण - अधिगम व्यवस्था की विशेषताएं

  • (१) इस उपागम की सहायता से शिक्षण और अधिगम में संबंध स्थापित किया जा सकता है।
  • (२) इस उपागम द्वारा विद्यार्थियों को सर्वांगीण विकास का पूर्ण अवसर प्रदान किया जा सकता है।
  • (३) शिक्षण तथा प्रशिक्षण को उद्देश्य - केंद्रित बनाया जा सकता है।
  • (४) शिक्षण क्रियाओं को उद्देश्यपूर्ण बनाया जा सकता है।
  • (५) शिक्षण सिद्धांतों का विकास भी इस उपागम द्वारा किया जा सकता है।
  • (६) व्यवस्था उपागम द्वारा शिक्षक को उसके कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक तथा प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • (७) व्यवस्था - उपागम द्वारा शिक्षण की समस्त क्रियाओं में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।
  • (८) शिक्षण- अधिगम व्यवस्था में शिक्षक - सहायक सामग्री के चयन और विकास करने में सहायता मिलती है।

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